बुधवार, 30 जनवरी 2013

रेल किराये में बढ़ोत्तरी पर हंगामा क्यों?



पिछले दिनों रेल किराये में बढ़ोत्तरी पर पूरे देश में हंगामा हो गया। ऐसा लगने लगा जैसे सरकार देश की खलनायक है और सम्पूर्ण विपक्ष ही नहीं सरकार को समर्थन दे रहे दल ही आम जनता के सच्चे हितैषी हैं पर अगर इस मुद्दे पर गंभीर मनन किया जाये तो वास्तविकता कुछ और ही पता चलती है।

क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि रेल किराये में वृद्धि दस वर्ष बाद की गयी है?
 
दरअसल गठबंधन की राजनीति में रेल मंत्रालय सरकार के सहयोगी दलों के पास रहा और लोक लुभावनी राजनीति के कारण रेल किराया न बढ़ाना ही जनता के हितैषी होने शुभचिंतक होने का प्रमाण हो गया। अगर सोचा जाये तो रेलवे को संचलित करने में अनेक संसाधन आवश्यक होते है, जिनमें ईंधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर सहित सम्पूर्ण स्टाफ के वेतन भत्ते शामिल होते हैं। जाहिर सी बात है की इनमें हर वर्ष वृद्धि होनी ही है तो क्या हर वर्ष किराये में मामूली वृद्धि किया जाना जायज नहीं होगा? क्या रेल किराये को दसियों साल तक न बढाया जाना ही आम जनता के हित की बात होगी?

विपक्ष तो विपक्ष, अधिकतर न्यूज़ चैनेल ने भी लोगों की भावनाओं को भड़काने का ही काम किया जबकि अगर वे इसपर संतुलित और समग्र दृष्टिकोण के साथ रिपोर्टिंग करते तो शायद कुछ अधिक जिम्मेदार लगते पर उनमें सनसनी न होती जो आज आवश्यक हो गयी है।

हैरानी की बात यह भी है कि सरकार भी बचाव की मुद्रा में दिखी जैसे वो भी अपराधबोध से ग्रस्त हो और यह दिखाना चाह रही हो की हालांकि किराये में वृद्धि गलत है पर हम मजबूर हैं। क्या सरकार को जनता के समक्ष और जोरदार तरीके से किराये में की गयी इस वृद्धि के औचित्य और कारणों को नहीं रखना चाहिए था पर लगता है सरकार भी इसी मानसिकता से ग्रस्त है कि रेल किराये में वृद्धि न करना ही जनता के हितैषी होने का एकमात्र पैमाना है।

आइये इस मुद्दे पर सोचें और अगर कुछ बातों और चीजों को राजनीति से बख्श दें तो देश शायद कुछ बेहतर बन सके ......

आपकी प्रतिक्रिया और विचारों का स्वागत है .


रविवार, 28 अगस्त 2011

लोकपाल से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा तो क्या करे? यूं ही चलने दे?

लोकपाल से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा....... तो क्या करे? यूं ही चलने दे?


   


यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब देश भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ खड़ा होता दिखाई दे रहा है तो अनेक लोग ही नहीं प्रभावशाली व्यक्ति तक लोकपाल की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे है.  
इस बात से  सभी सहमत होंगे कि कानून सड़क पर नहीं बनते और हमें संसदीय मर्यादाओ प्रक्रिया को ध्यान में रखना चाहिए. भारतीय संविधान, संसदीय परंपरा व गरिमा एवं देश के प्रति प्रत्येक भारतीय नागरिक आस्था रखता है. पर यह भी सही है कि सड़क पर उतरे हुए लोग संसद को सोचने के लिए बाध्य कर सकते है. अन्ना हजारे की नीति भले ही दबाव की रही हो पर उनका कार्य निजी हित में नहीं है.
अगर किसी क्षेत्र में चिकित्सालय खोलने अथवा चिकित्सक को तैनात करने की मांग क्षेत्रवासी कर रहे हो तो क्या यह कहना उचित होगा कि "इससे क्या होगा? क्या रोग दूर हो जायेंगे?" यह सही है कि किसी क्षेत्र में चिकित्सालय खोलने अथवा चिकित्सक को तैनात करने से ही लोग स्वस्थ नहीं होते पर कुछ सीमा तक नियंत्रण तो होता ही है. 
इसी तरह पुलिस की व्यवस्था के बावजूद अपराध होते है, तो क्या मात्र इसी वजह से पुलिस व्यवस्था समाप्त कर दी जाये? 
दरअसल यह काफी कुछ हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है.  
वही बात है कि ग्लास आधा भरा है कि आधा खाली है? 

"लोकपाल से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा" इसको ऐसे भी तो कहा जा सकता है कि यद्यपि लोकपाल से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा पर भ्रष्टाचार समाप्त करने की दिशा में यह एक सार्थक कदम तो है ही. 
वास्तव में किसी भी समाज में सारे मनुष्य एक जैसे नहीं होते. 
मुख्य रूप से उनको तीन श्रेणियों में बांटा  जा सकता है:-
1 - अंतर्मन से अच्छे, निर्मल ह्रदय
वाले व्यक्ति. समाज में यदि कोई कानून न हो तो भी जो अपराध नहीं करते.
2 - ढुलमुल नीति वाले, प्रतिकूल स्थिति हो तो ईमानदार, नियम मानने वाले, अच्छे दिखने वाले. जो पकडे जाने के भय से अपराध नहीं करते पर मन कमजोर होता है.
मौका मिलते ही अपराध करने से नहीं चूकते.
3 -  स्वभाव से ही नियम कानून की परवाह नहीं करने वाले. कितनी भी, कैसी भी सजा का कानून हो, पर अपराध करेंगे.

 
तो
क्रमांक 1  या 3 पर अंकित लोगो के लिए कानून नहीं होते. 
कानून तो क्रमांक 2 वाले ढुलमुल ह्रदय के लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए होते है.  
अधिकांश लोग ऐसे ही होते है. भारत में सड़क पर थूकेंगे. सड़क पर कचरा, खाली रैपर आदि निस्संकोच फेकेंगे पर विदेश में दंड के भय से सभ्य बन जायेंगे. 

इसलिए लोकपाल से भ्रष्टाचार ख़त्म होगा या नहीं यह तो समय बताएगा पर कम से कम उसका कुछ भय तो होगा.

शनिवार, 27 अगस्त 2011

अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन

सबसे पहले मैं यह स्पष्ट कर देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि न तो मैं किसी के समर्थन में हूँ ना विरोध में. मैं तो बस आपको मंथन, चिंतन करने के लिए कुछ सूत्र दे रहा हूँ.






जन लोकपाल के अन्ना हजारे को मिले अभूतपूर्व जनसमर्थन से यह लगने लगा कि चंद सरकारी बाबुओं और हुक्मरानों के अलावा सारा का सारा हिंदुस्तान भ्रष्टाचारमुक्त है. जबकि वास्तविकता इससे कहीं अधिक गंभीर और भयावह है. क्या जितने लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे हैं, विशेषकर युवा, उन्होंने इस बात को सुनिश्चित कर लिया है कि उनके घर रिश्वत, टैक्स चोरी से मुक्त हैं? 
कितने युवा इस बात को जानते है या कि यह उनके लिए चिंता का विषय है या इस बात को अपने माता पिता से पूछने का साहस कर सकते है  कि कही आप भ्रष्टाचार में लिप्त तो नहीं? अगर वे व्यापारी है तो टैक्स की चोरी तो नहीं करते?
दरअसल जो भी लोग कैमरे में उत्साह में नारे लगाते, तिरंगा लहराते या नाचते कूदते दिख रहे हैं वो दशहरे के उल्लास में मगन हैं. उनके लिए बुराइयों से लड़ने का मतलब बस रावण का पुतला जला देना है मगर वो कभी अपने अन्दर छिपे रावण को नहीं देखते. भ्रष्टाचार से मुक्ति या लड़ाई का अर्थ इतना ही तो है कि हम हाथ में मोमबत्ती लेकर या नारे लगाकर खुश हो लें कि अब सरकारी दफ्तर में रिश्वत नहीं देनी होगी. लेकिन इस खुशनुमा तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आम आदमी अन्दर से भ्रष्ट है और वो भ्रष्टाचार में सुविधा चाहता है और सुविधा में भ्रष्टाचार. दरअसल इस भ्रष्टाचार रुपी सिक्के के दो पहलू है. 
जब हम अपना जायज काम करवाने सरकारी विभाग जाये तो हमसे रिश्वत न मांगी जाये पर दूसरा पहलू यह कि जब हम टैक्स, जुर्माने, बिल आदि कि चोरी करना चाहें तो हमें ऐसे कर्मचारी मिल जाएँ जो भ्रष्ट हों और पैसा लेकर हमारी चोरी में सहयोग करे. यह कैसे संभव है?
आखिर वो कौन लोग हैं जो-
1- बिजली विभाग के कर्मचारियों से मिलीभगत कराकर मीटर धीमा कराते है या कुछ पैसे दे कर उपयोग की गयी बिजली से कम का बिल जमा कराते है. छोटे लोग तो कटिया लगाकर चोरी के लिए बदनाम हैं जो केवल बल्ब जलाते है मगर यह लोग तो
० सी०, दुकानें और फैक्ट्री तक चोरी की बिजली से चलाते हैं.

2- जब मकान या दुकान का हॉउस टैक्स जमा करना हो तो नगर निगम, म्युनिसिपल कारपोरेशन में ऐसे भ्रष्ट कर्मचारी की तलाश करते है जो ले दे कर बहुत कम टैक्स जमा कराएं.
जिससे नगर निगम, म्युनिसिपल कारपोरेशन भले ही घाटा उठायें मगर हम फायदे में रहें.

3- बाजार जाते समय अपने वाहन केवल निर्धारित पार्किंग में ही खड़े करे और क्या हममें इतना साहस है कि अगर नो पार्किंग में वाहन खड़े करने पर चालान हो तो जुर्माने की रकम अदा कर दें. मगर नहीं हम या तो कहीं ऊपर से फोन करवाएंगे कि धौंस में हमारा वाहन छूट जाये. वाह री चोरी और सीनाजोरी. अगर ऐसा न हो सका तो कोशिश करेंगे कि जुर्माने के 500 रुपये देने के बजाये सिपाही 50 रूपये लेकर वाहन छोड़ दे. हम सरकारी खजाने में 500 रुपये  जुरमाना अदा करने के बजाये 50 रूपये लेने के लिए आधा घंटा सिपाही की चिरौरी कर सकते है पर नारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लगायेंगे? वाह रे दोहरा चरित्र?

4- ऐसे ही जब हम बैंक में या रेलवे में रिज़र्वेशन कराने जायेंगे तो चाहेंगे कि कोई परिचित अन्दर जाकर बिना लाइन लगाये काम करा दे. लाइन में लगे शरीफ आदमियों को परेशानी हो तो मेरी बला से.

5- इसी तरह व्यापारी लोग बिक्री कर, व्यापार कर, आयकर आदि की चोरी के लिए दोहरी बिल बुक बनवा लेंगे, इन विभागों में भ्रष्ट अधिकारी कर्मचारी ढूँढ कर ख़ुशी ख़ुशी रिश्वत देकर गलत काम करा लेंगे, गलत नक्शा पास कराकर और रिश्वत देकर गलत तरीके से अपनी दुकान, काम्प्लेक्स, मकान आदि बनवायेंगे पर कहेंगे सरकारी दफ्तरों में बहुत भ्रष्टाचार है. यह कैसी दोगली नीति है? 

6- क्या इस आन्दोलन में जो युवा भाग ले रहे है वे रेल या बस में हमेशा सही टिकट लेकर चलते है? परीक्षाओं में अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं करते?
दरअसल चन्द पैसे बचाने के लिए किसी को रिश्वत दे देना हमें सबसे आसान काम लगता है. हमें यह समझना होगा कि जीवन में क्षुद्र लाभ या क्षणिक आसानी के लिए शोर्ट कट्स अपनाने वाले कभी भ्रष्टाचार के विरोधी नहीं हो सकते. वास्तव में वे भी भ्रष्ट व्यस्था के पोषक और समर्थक हैं. यह समस्या ठीक वैसी ही है कि यदि हम दहेज़ ले रहे है तो ठीक पर यदि देना पड़े तो गलत. आखिर दोहरे चरित्र का जीवन जीकर हम किसको धोखा दे रहे है? समाज को या अपनी अंतरात्मा को? 
सारे देशवासियों विशेषकर युवाओं को यह बात समझ लेनी चाहिए कि हम अपने आचरण, विचारों में परिवर्तन लाकर ही सामाजिक परिवर्तन की बात करने के लायक हो सकते हैं. इसके अलावा प्राईवेट चिकित्सकों द्वारा कमीशन के लिए फालतू की जांचें लिखना, दवा कंपनियों को उपकृत करने के लिए अनावश्यक दवाएं लिखना, दुकानदारों द्वारा कम सामान तौलना मिलावटी सामान बेचना, शिक्षकों द्वारा निष्ठा से न पढ़ाना कोचिंग हेतु बाध्य करना भी भ्रष्टाचार है.
वास्तव में भ्रष्टाचार से मुक्ति दृढ इच्छाशक्ति से ही संभव है जब हम यह ठान लें कि न तो गलत काम करेंगे न ही करवाएंगे. 
टैक्स हो या जुर्माना राजकोष में सही सही जमा करेंगे. 
भले ही ए० सी० के बजाये कूलर या पंखे का प्रयोग करना पड़े, व्यापार छोटा हो जाए पर बिजली की चोरी नहीं करेंगे और पूरा बिल समय से अदा करेंगे. 
घर में सादा खाना खा लेंगे बच्चों को साधारण स्कूल में पढ़ा लेंगे पर रिश्वत का पैसा घर में नहीं लायेंगे.

आइये हम सब अपने चरित्र व देश के निर्माण व उत्थान के लिए सच्चे मन से भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प लें. 
जय हिंद.   

सोमवार, 22 अगस्त 2011

सचिन को भारत रत्न क्यों?

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सचिन को भारत रत्न क्यों?


विगत कुछ समय से सचिन को भारत रत्न दिए जाने की मांग ऐसे की जा रही है जैसे उन्होंने अपनी देश सेवा से गांधी, नेहरु, आम्बेडकर, पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, टैगोर, गोखले, भगत सिंह, विवेकानंद, कलाम, कृषि वैज्ञानिकों, इसरो डी आर डी ओ के वैज्ञानिकों श्रेष्ठ चिकित्सकों तक को पीछे छोड़ दिया है.
भारत में क्रिकेट एक ऐसी राष्ट्रीय समस्या है कि इसके बारे में कुछ भी बोलना आसान नहीं है. विचारों पर भावना, सोच पर ग्लैमर, चिंतन पर नशा इस कदर हावी है कि हम विरोध तो दूर असहमति से शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छुपाते है. प्रश्न यह है कि आखिर सचिन ने भारत के लिए किया ही क्या है या भारत को दिया ही क्या है कि उनको देश का रत्न मान लिया जाए? केवल चंद देशों के साथ एक खेल में रन बना लेना ही क्या किसी को भारत रत्न के योग्य बना देता है? 
यह क्रिकेट के खिलाडी न केवल प्रत्येक मैच खेलने के लिए मोटी रकम पाते हैं बल्कि पूरी देह, कपड़ों, बल्ले में अनेक कंपनियों के नाम चिपकाये कार्टून बने करोड़ों रूपये कमाते है. इसके अलावा टेलीविजन पर अनेक विज्ञापनों से सालाना करोड़ों रूपये भी कमाते हैं जिसमें शराब की कंपनी भी शामिल हैं. 
इन खिलाडियों के लिए देश नहीं पैसा महत्त्वपूर्ण होता है. पैसे के लिए ही यह IPL BPL CPL DPL किसी भी टीम में नीलामी द्वारा खरीदे जा सकते हैं जहाँ पैसे के लिए धोनी सचिन को स्टंप कर सकते हैं तो सहवाग द्रविड़ को कैच आउट कर सकते हैं. 
यह खिलाडी पैसे के लिए सब कुछ बेचते बेचते एक दिन स्वयं भी बिकाऊ सामान (Saleable Item) बन जाते हैं और बाज़ार में बिकने लगते हैं. 
अगर इनको किसी राष्ट्रीय समारोह में बुलाया जाये और दूसरी ओर कोई और पैसे का कार्यक्रम हो तो यह वहां जाना पसंद करेंगे. टाइम्स ऑफ इण्डिया में समाचार छपा था कि १८ जुलाई को भारतीय उच्चायोग ने एक समारोह में भारतीय क्रिकेट टीम के शामिल न होने कि शिकायत की थी.
अक्सर यह बात चर्चा में आती रहती है कि भारत के जिस भी इलाके में कोल्ड ड्रिंक के प्लांट लगते हैं वहां का भूजल स्तर बहुत तेजी से नीचे जाता है. यह क्रिकेट खिलाडी कोल्ड ड्रिंक को बेचने में सबसे आगे रहते है. सारे मैच में भी कोल्ड ड्रिंक कंपनी ही छाई रहती है. बल्कि यह कहा जा सकता है की हमारे देश में क्रिकेट के खिलाडी व फिल्म स्टार की ही वजह से कोल्ड ड्रिंक बिकती है. अगर क्रिकेट से कोल्ड ड्रिंक को हटा दिया जाये तो इनकी बिक्री बहुत कम हो जाएगी. वास्तव में क्रिकेट और यह तथाकथित देशभक्त खिलाडी देश में कोल्ड ड्रिंक व बाज़ार के सामान  बेचने का जरिया बन गए हैं. 
मित्रों क्या यह हमारा दायित्व नहीं की हम भेड़ चाल से परे देश हित में खुले दिमाग से सोचें? आखिर कौन हमें गुलाम बनाये रखना चाहता है? आँख दिमाग बंद कर जूनून में चिल्लाने से किसका भला हो रहा है किसके हित सध रहे हैं? आखिर हम कोई पेय पदार्थ आँख बंद कर क्यों पियें?
वास्तव में क्रिकेट को जूनून बना दिया गया है. पहले तो मैच कम होते थे अब पूरे साल ही टेस्ट मैच, वन  डे, 20 -20, IPL BPL CPL DPL  आदि मैच होते रहते हैं और देश का युवा वर्ग देश की समस्याएं, अपनी परीक्षाएं, अपना कैरियर भूल कर इस नशे में खोया रहता है. 
इसके अलावा हमारा देश बिजली की तंगी व समस्या से जूझ रहा है. एक ओर बिजली के अभाव में ऑपरेशन टल जाते हैं, खेतों में सिंचाई का पानी नहीं पंहुच पाता है, बच्चे पढ़ नहीं पाते हैं, वहीँ दूसरी ओर रात में स्टेडियम में लाखों रूपये की बिजली एक दिन में फूँक कर क्रिकेट का तमाशा होता है जिसे देखने के लिए लोग घरों में टेलीविजन में लाखों की बिजली एक दिन में फूँक देते हैं. इसे ही कहते हैं अंधेर नगरी चौपट राजा, जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था, कुएं में भांग, मस्तराम मस्ती में आग लगे बस्ती में, घर फूँक तमाशा देखना आदि. अगर कार्ल मार्क्स की भाषा में कहा जाये की क्रिकेट अफीम है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. अगर हम कुछ साल क्रिकेट को सीमित कर दें तो बिजली पानी की समस्या कुछ हद तक सुधर सकती है. इंग्लॅण्ड व उसके शासन के अधीन रहे चंद ऐसे देशों में ही क्रिकेट लोकप्रिय है जहाँ अभी भी गुलाम मानसिकता प्रभावी है. अन्य तरक्कीपसंद देशों में क्रिकेट का जूनून नहीं है.
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया, विशेषकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपने उत्तरदायित्व को भूल कर क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने में आँख मूँद कर शामिल है. उसके लिए राष्ट्रीय समस्या से बड़ी समस्या यह है कि ऐसा न हो कि कहीं दूसरे चैनेल की TRP हमसे ज्यादा न हो जाये. उसके लिए समाचार मात्र बिकाऊ सामान (Saleable Item) से अधिक नहीं. ऐसा नहीं कि सारे चैनेल ऐसे हैं कुछ अपने दायित्व को समझते हैं मगर अधिकांश इस भेडचाल में शामिल है.
इस प्रकार अगर देखा जाये तो सचिन ही भूमिका इतनी ही है कि इन्होंने क्रिकेट की, विज्ञापन कंपनियों की ही सेवा की है और इसके माध्यम से अरबों रूपये कमाए हैं. इसके अलावा इनका देश के प्रति कार्य, समर्पण शून्य है.  
जहां करोड़ों लोग एक समय भोजन को तरसते हों, साफ़ पानी के अभाव में लाखों लोग बीमार रहते हों, बच्चे गर्भवती स्त्रियाँ कुपोषण का शिकार हों, बचपन गरीबी के कारण अशिक्षा बालश्रम से ग्रसित हो वहां सपनों की अफीम, कोल्ड ड्रिंक का जहर, क्रिकेट के नाम पर जुनून भरी अकर्मण्यता बेच कर अपनी जेब में अरबों रूपये ले आना कौन सा ऐसा विशिष्ट, अद्वितीय या अतुलनीय कार्य है की क्रिकेट के किसी खिलाडी को भारत का रत्न या सपूत होने का तमगा दिया जाये?  
अगर इनको पुरस्कृत करना बहुत बहुत जरूरी हो तो "क्रिकेट रत्न" "विज्ञापन रत्न" "रन रत्न" "रुपया रत्न" "बिक्री रत्न" "कोल्ड ड्रिंक रत्न" जैसे पुरस्कार दिए जा सकते हैं.  
"भारत रत्न" तो सदियों में पैदा होते हैं जो अपना पूरा जीवन भारत की सेवा के लिए न्योछावर कर देते हैं. उनका जीवन दूसरों के लिए मिसाल बन जाता है और आने वाली पीढियां, बच्चे उनका अनुसरण कर देश को आगे बढ़ाने में अपना जीवन अर्पित कर देते हैं. सचिन जैसे खिलाडियों से बेहतर है की भारत रत्न उस किसान को दिया जाये जिसने अपना पसीना बहा कर हमें अनाज दिया है, जिस मजदूर ने सड़कें और मकान बनाये हैं, जिस चिकित्सक ने अमूल्य सेवा की है, जिस जांबाज सैनिक ने देश के लिए अपने प्राण दिए हैं, जिस वैज्ञानिक ने नयी खोज की है, जिस शिक्षक ने नयी पीढ़ी को निस्वार्थ भाव से तैयार किया है आदि.  
इसलिए सचिन को भारत रत्न देने की मांग अतार्किक व देश के हित में नहीं कही जा सकती. 
मैं यह नहीं कहता मैं ही सही हूँ मगर कम से कम इस मुद्दे पर एक बात तो की ही जा सकती है. आप अपना चश्मा उतार कर निष्पक्ष और निरपेक्ष रूप से सोचें तो क्या सही है? 
आप की राय पक्ष में हो या विपक्ष में, आप सहमत हों या असहमत पर भावनाओं से परे, तार्किक, संतुलित व विचारात्मक टिप्पणियों का स्वागत है.

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